भारत का इतिहास भारतीयों
ने अपने नज़र से देखने की अपेक्षा विदेशी इतिहासकारों की नज़र से देखना ज्यादा
जरूरी समझा है.
भद्रबाहु कौन थे?भद्रबाहु का जैन साहित्य में क्या
स्थान है?भद्रबाहु चरित्र के लेखक कौन थे ?
भारतीय इतिहास में बिदेशियों की क्या देन है?
इसलिए
तो कोई कुछ भी लिख देता है तो उसे पत्थर की लकीरों की तरह ग्रहण करते है।
भारत
के इतिहास को मनमाने ढंग से लिखने में विदेशी इतिहासकारों को प्रोत्साहित करने में
हमारा कमतर योगदान नहीं है. वास्तव में भारत का इतिहास एक छद्म इतिहास है।
बिदेशी इतिहासकारों पर हमें आपत्तियां क्या है?
ऐसा
कहने के पीछे केवल तर्क ही नहीं अपितु बहुतायत मात्रा में आपत्तियां भी है. जैसा
कि भारत के इतिहास में हमे यह पढाया जाता है कि भारत के चक्रवर्ती सम्राट
चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम दिनों में जैन मत को अपन लिया था। हमारी पुस्तकों
में पढाया जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने कुछ स्वप्न देखने के बाद जैन आचार्य
भद्रबाहु से जैन मत की दीक्षा ली थी. और जैन मुनी के रूप पर चन्द्रगिरि पर्वत पर
अपने जीवन के अंतिम क्षणों को एक जैन सन्यासी के रूप में व्यतीत किया था.जबकि यह
सत्य नही है!
भद्रबाहु से दीक्षा लेने वाले चन्द्रगुप्त कौन थे?
क्योंकि
वास्तव में भद्रबाहु से जैन मत की दीक्षा लेने वाले राजा का नाम चन्द्रगुप्त मौर्य
नही था. बल्कि चन्द्रगुप्ति था !
चन्द्रगुप्त मौर्य कहां के शासक थे?
और
जहां चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के शासक थे. और उनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
चन्द्रगुप्ति कहां के शासक थे?
वहीं
जैन बनने वाला राजा चन्द्रगुप्ति उज्जैन के शासक थे।
चन्द्रगुप्ति के विषय में जैन ग्रंथ क्या कहते हैं?
राजा
चन्द्रगुप्ति के विषय में हमने जैन ग्रन्थ भद्रबाहु चरित्र अध्ययन किया तो हम
निम्नलिखित तथ्यों से अवगत हुए -
भद्रबाहु चरित्र में क्या लिखा है?
भद्रबाहु
चरित्र जो आचार्य रत्नकीर्ति (ई. १५१५) द्वारा विरचित संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ है, इसमें चार परिच्छेद तथा 498 श्लोक हैं।
क्या चन्द्रगुप्त मौर्य जैन नहीं बने थे?
भद्रबाहु
चरित्र, द्वितीय
परिच्छेद में यह श्लोक हमें लिखा प्राप्त हुआ है.
जिसका
मूल श्लोक और अर्थ सहित निम्नलिखित है
"विवेकविनयानेकधनधान्यादिसम्पदा।।5।।
अभआदुजयिनी
नाम्ना पुरी प्राकारवेष्टिता।
श्रीजिनागारसागारमुनिसद्धममण्डिता।।6।।
चन्द्रावदातसत्कीर्त्तिश्चन्द्रवन्मोदकर्तृणाम्।
चन्द्रगुप्तिर्नृपस्तत्राचकच्चारुगुणोदयः।।7।।
- भद्रबाहु चरित्र, द्वितीय परिच्छेद
-
अर्थात्
- विवेक विनय धन धन्यादि सम्पदाओं से समस्तदेश को जीतने वाले अवन्ती नामक
देश में , प्राकार से युक्त तथा श्रीजिनमन्दिर, गृहस्थ मुनि उत्तम धर्म से विभूषित उज्जयिनी नाम पुरी है।
उसमें
चन्द्रमा के समान निर्मल कीर्ति धारक, चन्द्रमा के समान आनन्द देने वाला, सुन्दर-सुन्दर गुणों से विराजमान, ज्ञान तथा कला
कौशल मे सुचतुर, जिन पूजन में इन्द्र के समान, चार प्रकार के दान देने में समर्थ, तथा अपने
प्रताप से सूर्य को पराजित करने वाला चन्द्रगुप्ति नामक राजा था।
चन्द्रगुप्त
मौर्य नहीं बल्कि चंद्रगुप्ति जैन बने थे?
इस
प्रकार इस ग्रन्थ से स्पष्ट होता है की भद्रबाहु से दीक्षा ले कर जैन मत स्वीकार
करने वाले राजा का नाम चन्द्रगुप्त मौर्य नही बल्कि चन्द्रगुप्ति था जो उज्जैन के
राजा थे।
इस
ग्रन्थ के द्वितीय परिच्छेद के श्लोक 18 - और 19 में जैन आचार्य भद्रबाहु के अपने 12 हजार
मुनीयो के उज्जैन आने का भी विवरण प्राप्त होता है।
अतः
जैन ग्रन्थो के इस प्रमाण के हिसाब से यह सिद्ध होता है की जैन मत स्वीकार करने
वाले राजा का नाम चन्द्रगुप्ति था और वह उज्जैन के राजा थे। जबकि चन्द्रगुप्त
मौर्य मगध के शासक थे. अतः हम कह सकते है कि भारत का इतिहास बहुत ही विचित्र और
सडयंत्रण पूर्ण तरीके के साथ हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता है , जबकि जिन साक्ष्यों का उल्लेख करके हमारा
इतिहास लिखा गया उन साक्ष्यों को खंघालने में हकीकत कुछ और ही होता है।
चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा प्राप्त की थी ऐसा कहने के पीछे उनके अनुयायियों का क्या उद्देश्य था?
जवाब देंहटाएंमत का प्रचार
हटाएंचन्द्रगुप्ति के स्थान पर कई जगह चन्द्रगुप्तति टाइप हो गया है।
जवाब देंहटाएंसुधार कर लिया
हटाएंGood article
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंVery nice Hume such btaya
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